अशोक
हाँ....मैं अशोक हूँ,जिसे शोक नहीं होता।
सुभद्रांगी प्रिय धर्मा मेरी माता।
पुत्र हूँ बिंदुसार का,चंद्रगुप्त का पोता।
हाँ....मैं अशोक हूँ,जिसे शोक नहीं होता।।
क्रूर,अहंकारी,निरंकुश हूँ अत्याचारी।
काँपता मेरी छवि से हर एक नर नारी।
ना सो पाता जग भय से,ना मैं स्वयं सोता।
हाँ....मैं अशोक हूँ,जिसे शोक नहीं होता।।
निर्मम,रक्तपिपासु अपने ही भाईयों का।
सिहांसन की लालसा में दी उनको मृत्यु।
अपनों के रक्त को अपनी ही तलवार से धोता।
हाँ....मैं अशोक हूँ ,जिसे शोक नहीं होता।।
निर्भीकता से आरी को जीतता हूँ।
हार कभी नहीं देख सकता हूँ।
पूर्ण धरा की जीत के सपनें आँखों में संजोता।
हाँ....मैं अशोक हूँ,जिसे शोक नहीं होता।।
कलिंग बन गया मन की टीस।
आठ वर्ष की प्रतीक्षा को सींच।
रक्त से भरी धरा पर हल विजय का जोता।
हाँ....मैं अशोक हूँ,जिसे शोक नहीं होता।।
जीत कर कलिंग मैं सर्वस्य हारा।
भग्न हृदय ने आत्मा को ललकारा।
रोक ले नरसंहार ,बचे आंसुओं का धैर्य खोता।
हाँ....मैं अशोक हूँ,जिसे शोक नहीं होता।।
ढून्ढ रहा हूँ मन की शान्ति।
खोने लगी चेहरे की कांति।
अकुलाहट होने लगी,भाग्य क्या भविष्य बोता।
हाँ....मैं अशोक हूँ,जिसे शोक नहीं होता।
एक भिक्षु ने बदला जीवन।
उसकी शिक्षा ने किया परिवर्तन।
शांत हुआ मन,आँसू ख़ुशी से तन भिगोता।
हाँ....मैं अशोक हूँ ,जिसे शोक नहीं होता।।